Add To collaction

लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 72 
देवयानी ने जानबूझकर कहा था कि किसी ने उसके पिता का अपमान किया है । ऐसा कहने से शुक्राचार्य को क्रोध आयेगा, यह देवयानी जानती थी । शुक्राचार्य ही क्यों अन्य कोई भी होता तो उसे भी क्रोध आ जाता । देवयानी की बातों का त्वरित असर हुआ और शुक्राचार्य के चेहरे का रंग बदल गया । उनके मुख मंडल पर क्रोध की रेखाऐं दृष्टिगत होने लगी । ताव में आकर वे कहने लगे 
"पहेलियां ना बुझाओ पुत्री, स्पष्ट कहो कि क्या बात हुई है ? किसने तुम्हें अपशब्द कहने का दुस्साहस किया है ? या तो वह तुमसे परिचित नहीं है या फिर उसे अपने प्राणों से मोह नहीं है । अब शीघ्र और साफ साफ बताओ कि किसने क्या कहा है" ? 

देवयानी ने देखा कि जितना उसने अपेक्षा की थी उतना क्रोध अभी शुक्राचार्य को नहीं आया है इसलिए अभी अपनी बात कहने का वह असर नहीं होगा जैसा वह चाहती है । इसलिए उसने उन्हें थोड़ा और तपाने के लिए कहा 
"अब जाने दीजिए तात् ! समस्त बातें जानकर भी आप क्या कर लेंगे ? हमारे शास्त्रों में लिखा है कि त्रुटि के लिए सामने वाले को क्षमा कर देना चाहिए । क्षमा करना ही सबसे कठोर दंड है इसलिए मैंने तो उसे क्षमा भी कर दिया है । किन्तु मन में एक ही टीस बची है" । 
"क्या पुत्री" ? 
"यही कि त्रैलोक्य में अद्वितीय विद्वान, परम शिव भक्त और महान तपस्वी शुक्राचार्य का अपमान एक तुच्छ प्राणी कर रहा है और सब लोग इसे देख रहे हैं । आप तो महान ऋषि भृगु के पौत्र हैं । आपका इतना ऊंचा कुल है । आपने शिवजी को प्रसन्न करके मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की है । आपका गौरव दसों दिशाओं में फैल रहा है । आपके यश को कौन नहीं जानता है ? परन्तु ऐसा लगता है कि कुछ लोग अपने अभिमान के कारण आपका प्रताप देख नहीं पाते हैं ।  
आप तो ज्ञान योग के द्वारा "बुद्धियोग" को प्राप्त हो गये हैं इसलिए आप जैसे तत्वदर्शी को इन तुच्छ बातों से राग द्वेष नहीं होता है और आपका हृदय इतना विशाल है कि आप सबको क्षमा भी कर देते हैं । परन्तु मेरा हृदय इतना विशाल नहीं है तात् । मैं उसकी तुच्छ बातों से चिढ़ गई हूं इसीलिए मैं विक्षिप्त की तरह से व्यवहार कर रही हूं । अब आप ही मुझे शांत कर सकते हैं तात् अन्य कोई नहीं" । देवयानी के अधरों पर एक कुटिल मुस्कान खेलने लगी थी । 

"नहीं पुत्री, ऐसा नहीं है । क्षमा करना तभी सार्थक होता है जब अपराधी को अपने अपराध का बोध हो । यदि उसे अपराध बोध ही नहीं हुआ है तो उसे दंड देना एक राजा का परम कर्तव्य है । इसलिए तुम मुझे बताओ कि किसने क्या कहा था ताकि उस दुष्ट बुद्धि को ततूकाल सबक सिखाया जा सके" ? शुक्राचार्य को अब भयंकर क्रोध आ गया था । 

देवयानी इसी अवसर की तलाश में थी । देवयानी अच्छी तरह जानती थी कि लोहा गरम देखकर चोट मारने से ही काम बनता है । देवयानी ने शुक्राचार्य को तमतमाते हुए देखकर चोट मारने का निश्चय कर लिया । वह कहने लगी 
"तात् ! आपने तो शर्मिष्ठा को मुझसे भी अधिक स्नेह प्रदान किया है किन्तु उसने क्या किया ? उसने आपको भिखमंगा कहा , याचक कहा । और तो और उसने आपको यह भी कहा कि आप उसके पिता के टुकड़ों पर पल रहे हैं । अब आप ही कहिये कि इन शब्दों को सुनकर मैं विक्षिप्त नहीं होऊं तो और क्या करूं ? जबसे मैंने ये शब्द सुने हैं मेरा तन भट्टी सा दहक रहा है । मन दावानल सा झुलस रहा है । मुझे एक पल को भी चैन नहीं आ रहा है । मेरा तो मन कर रहा था कि शर्मिष्ठा का एक ही घूंसे से जबड़ा तोड़ दूं । किन्तु आपका ध्यान करके मैं यह कृत्य नहीं कर पाई और अपमान का घूंट पीकर वहां से चली आई । मुझे भय था कि यदि मैं ऐसा करूंगी तो आप मुझ पर अवश्य ही क्रोध करेंगे और कहेंगे कि "देव, तुम्हें तो संयम से काम लेना चाहिए था । यदि शर्मिष्ठा ने कुछ गलत कह दिया है तो उसे विस्मरण कर देना चाहिए था क्योंकि वह महाराज वृषपर्वा की पुत्री है" । बस यही सोचकर में उसे बिना कुछ कहे अपनी कुटिया में चली आई । अब आप ही बताइए तात् कि मैंने क्या अनुचित किया है" ? देवयानी ने भोली सूरत बनाकर कहा । 

देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य सन्न रह गये । उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि बात महाराज और शर्मिष्ठा से संबंधित होगी । राजकुमारी शर्मिष्ठा को उन्होंने पुत्री का सा वात्सल्य दिया है , तो उसे कैसे दंडित करें ? उन्हें विश्वास भी नहीं हो रहा था कि शर्मिष्ठा ऐसे अभद्र, अमर्यादित और अपमानजनक शब्द अपने मुंह से बोलेगी । किन्तु जब देवयानी कह रही है तो सही ही कह रही होगी ! इसमें तो कोई संशय नहीं है । शुक्राचार्य किंकर्तव्य की स्थिति में बैठे रह गये । उनसे तत्काल कुछ कहते नहीं बना । उन्हें "सपाट" स्थिति में देखकर देवयानी कहने लगी 
"जिस प्रकार ये बातें सुनकर आप स्तब्ध रह गये हैं उसी प्रकार मैं भी ऐसे ही स्तब्ध रह गई थी और मेरे ओंठ बिंध गये थे । लेकिन जब अधिक क्रोध आने लगा तो मैं वहां से चली आई । मैं क्रोध में आकर उसे श्राप भी दे सकती थी जैसे कच को दिया था,  किन्तु वह मेरी सखि थी । वह चाहे इस संबंध को भूल जाये किन्तु मैं कैसे भूल सकती थी इसलिए मैंने उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं किया । लेकिन उस दुष्टा, अधम , पापिन ने क्या किया मेरे साथ , आप जानना चाहते हैं" ? देवयानी अचानक आवेश में आकर चीखने लगी । 

शुक्राचार्य देवयानी का वह रूप देखकर हतप्रभ रह गये । देवयानी की बात सुनकर उन्हें भी आक्रोश आ गया और गरजते हुए पूछने लगे 
"क्या किया उस घमंडी लड़की ने तेरे साथ ? मुझे सब सच सच बता तभी मैं उसके लिए दंड निर्धारित कर सकूंगा" । 

देवयानी अपने उद्देश्य में सफल हो गई थी । उसने जले पर नमक छिड़कते हुए कहा "तात , उसने मेरे वस्त्र फाड़ दिये और मुझे अनावृत करके एक कुंए में धकेल दिया । वो तो भला हो सम्राट ययाति का जो उन्होंने ऐन वक्त पर पधारकर मुझे बचा लिया अन्यथा आप मुझे जीवित नहीं देख पाते आज । उन्होंने अपना उत्तरीय मुझे देकर मेरी लाज भी बचाई है तात्" । देवयानी ने ययाति का उत्तरीय शुक्राचार्य के हाथों में रखते हुए कहा । 

प्रत्यक्ष को प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती है । अपने हाथ में ययाति का उत्तरीय देखकर शुक्राचार्य को विश्वास हो गया कि शर्मिष्ठा ने देवयानी को अनावृत कर कुंए में धक्का दिया होगा तभी ययाति ने अपना उत्तरीय देवयानी को दिया होगा । यदि ऐसा नहीं होता तो ययाति का उत्तरीय देवयानी के पास कैसे आता ? शर्मिष्ठा का यह कृत्य अत्यंत निंदनीय था जिसके लिए उसे दंडित किया जाना आवश्यक हो गया था । 

शुक्राचार्य ने अमर्ष में भरकर कहा "शर्मिष्ठा ने यह अच्छा नहीं किया देव ! उसे इसका दंड अवश्य भोगना पड़ेगा । बताओ, क्या दंड दिया जाये उस अधम पापिन को" ? शुक्राचार्य बौखला उठे । 

शुक्राचार्य का गुस्से में तमतमाया हुआ चेहरा देखकर देवयानी को बहुत सुकून मिला । उसने कहा "पिता श्री, मेरी राय में तो उसके इस कृत्य का दंड मृत्युदंड ही बनता है । लेकिन मैं सोचती हूं कि शर्मिष्ठा मेरी सखि है और आपकी पुत्रीवत है इसलिए उसके प्राण हर लेना उचित नहीं जान पड़ता है । वह चाहे मुझे भिक्षु समझे , अकिंचन समझे या महाराज के टुकड़ों पर पलने वाली समझे , मैं तो उसे सदैव अपनी सखि ही समझती आई हूं और आगे भी समझती रहूंगी । इसलिए मैं उसे कोई शारीरिक दंड देना नहीं चाहती हूं । मैंने उसके लिए कोई अन्य दंड निर्धारित कर लिया है । आपसे तो इतनी सी विनती है कि आप महाराज पर ऐसा दबाव बनायें कि उन्हें शर्मिष्ठा को मेरे मन के अनुसार दंड देना पड़े । बस इसी से मुझे चैन आयेगा" । देवयानी कुटिल हंसी हंसते हुए बोली । 

श्री हरि 
17.8.23 

   10
1 Comments